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________________ ३१० शब्दार्थविमलस्वामिनः - श्रीविमलनाथ ! जयन्ति-जयको प्राप्त हो रही है। प्रभुको। त्रिजगत् - चेतस् जल नैर्मल्यवाचः-वाणी। हेतवः - त्रिभुवनमें स्थित कतक-क्षोद - सोदरा:-कतक - प्राणियोंके चित्तरूपी जलको फलके चूर्ण जैसी। स्वच्छ करने में कारणरूप । कतक-निर्मली नामकी वनस्प- त्रिजगत् - त्रिभुवन । चेतस्ति । क्षोद - चूर्ण । सोदरा चित्त । नैर्मल्य-निर्मलता, बहिन जैसी। स्वच्छ । हेतु-कारण। अर्थ-सङ्कलना त्रिभुवनमें स्थित प्राणियोंके चित्तरूपी जलको स्वच्छ करने में कारणरूप कतक-फलके चूर्ण जैसी श्रीविमलनाथ प्रभुकी वाणी जयको प्राप्त हो रही है ॥ १५ ।। मूल स्वयम्भूरमण-स्पी, करुणारस-बारिणा । अनन्तजिदनन्तां वः, प्रयच्छतु सुख-श्रियम् ॥१६॥ शब्दार्थस्वयम्भूरमणस्पर्धी - स्वयम्भू । . करुणारस-दयारूपी (रस)। वारि-जल। रमण समुद्र की स्पर्धा करनेवाले। | अनन्तजिद-श्रीअनन्तनाथ प्रभु । स्वयम्भूरमण – अन्तिम समुद्र । अनन्तां-अनन्त । स्पद्धिन्-स्पर्धा करनेवाला । | वः-तुम्हारे लिये । करुणारस - वारिणा -- दयारूपो | प्रयच्छतु-प्रदान करें। जलसे। सुख-श्रियम्-सुख-सम्पत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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