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________________ ५५ अजिय-संति-थो [अजित-शान्ति-स्तव ]x मूल [ मङ्गलादि ] अजियं जिय-सव्व-भयं, संतिं च पसंत-सव्व-गय-पावं । जयगुरूँ संति-गुणकरे, दो वि जिणवरे पणिवयामि ॥१॥ -गाहा ॥ शब्दार्थअजियं-श्रीअजितनाथको। पसंत-पुनः न हो इस प्रकार जिय-सव्व-भयं-समस्त भयोंको निवृत्ति प्राप्त, प्रशमन जीतनेवाले। करनेवाले। सव्व-सर्व । जिय-जीतनेवाले । सव्व-भय- | जय-गुरू-जगत्के गुरुको । __समस्त भय । संति-गुणकरे-विघ्नोंका उपशमन करनेवालेको । संति-श्रीशान्तिनाथको । संति-विघ्नोंका उपशमन । च-और। दो वि-दोनों ही। पसंत-सव्व- गय - पावं - सर्व | जिणवरे-जिनवरोंको। रोगों और पापोंका प्रशमन | पणिवयामि-मैं पञ्चाङ्ग प्रणिपात करनेवाले। ____ करता हूँ। x अक्षरके ऊपर दिया हुआ ऐसा चिह्न गुरुको लघु दिखलानेके लिए और-ऐसा चिह्न लघुको गुरु दिखलानेके लिये है। प्रत्येक गाथाकी उत्थापनिकाके लिये देखो-प्रबोधटीका भाग ३ रा. पृ. ४७१ से ५३१ । एक स्वतन्त्र पद्यको मुक्तक, दो पद्योंके समूहको सन्दानितक, तीन पद्योंके समूहको विशेषक और चार पद्योंके समूहको कलापक कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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