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________________ ३२७ अर्थ-सङ्कलना समस्त भयोंको जीतनेवाले श्रीअजितनाथको तथा सर्व रोगों और पापोंका प्रशमन करनेवाले श्रोशान्तिनाथको, इसी तरह जगत्के गुरु और विघ्नोंका उपशमन करनेवाले इन दोनों ही जिनवरोंको मैं पञ्चाङ्ग प्रणिपात करता हूँ॥ १ ॥ मूलववगय-मंगुल-भावे, ते हं विउल-तव-निम्मल-सहावे । निरुवम-महप्पभावे, थोसामि सुदिट्ट-सब्भावे ॥२॥ -गाहा ॥ शब्दार्थववगय- मंगुल- भावे - जिनका | विउल-विपुल, विस्तीर्ण । तव राग-द्वेषरूपी अशोभनभाव तप । निम्मल-निर्मल। सहाव चला गया है ऐसे, वीतराग । -स्वभाव। ववगय-विशिष्ट प्रकारसे गया | निरुवम - महप्पभावे - अनुपम हुआ। मंगुल-अशोभन । । माहात्म्यवालोंको । भाव-भाव । निरुवम-अनुपम । ते-उन दोनों जिनवरोंको । | महप्पभाव-महाप्रभाव, माहात्म्य । हं-मैं ( नन्दिषेण )। थोसामि-स्तुति करता हूँ। विउल-तव-निम्मल - सहावे- सुदिट्ट - सब्भावे - सर्वज्ञ और अति तपद्वारा निर्मलीभूत सर्वदर्शियोंको। स्वभाववालोंको, विपुल तपसे सुदिट्ठ-जिसने सम्यक् प्रकारसे आत्माके अनन्तज्ञानादि निर्मल देखा और पहिचाना है । स्वरूपको प्राप्त करनेवाले।। सब्भाव-वस्तुका सद्रूप भाव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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