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ठाम-कुठाम न लेखवे रे! जग वरसन्त जलधार । कर दोय कुसुमे वासिये रे ! छाया सवि आधार
जिणन्दराय ! धरज्यो धर्मसनेह ॥ ३ ॥ राय ने रङ्क सरीखा गणे रे ! उद्द्योते ससि-सूर । गङ्गा जल ते बिहु तणा रे ! ताप करे सवि दूर
___ जिणन्दराय ! धरज्यो धर्मसनेह ।। ४ ।। सरिखा सहुने तारवा रे ! तिम तुमे छो महाराज ! मुज शुं अन्तर किम करो रे ! बाह्य ग्रह्यानी लाज
जिणन्दराय ! धरज्यो धर्मसनेह ।। ५ ।। मुख देखी टोलु करे रे ! ते नवि होय प्रमाण । मुजरो माने सवि तणो रे ! साहिब ! तेह सुजाण
जिणन्दराय ! धरज्यो धर्मसनेह ॥६॥ वृषभ-लंछन माता सत्यकी रे ! नन्दन रुक्मिणी कन्त । वाचक जस इम विनवे रे ! भय-भञ्जन भगवन्त
जिणन्दराय ! धरज्यो धर्मसनेह ॥ ७॥
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श्रीसिद्धाचलजीका स्तवन विमलाचल नितु वन्दीए, कोजे एहनी सेवा। मानुं हाथ ए धर्मनो, शिव-तरु-फल लेवा-विमला० ॥ १ ॥ उज्ज्वल जिन-गृह-मण्डली, तिहां दीपे उत्तंगा। मानुं हिमगिरि विभ्रमे, आई अम्बर-गंगा--विमला० ।।२।। कोई अनेरुं जग नहीं, ए तीरथ तोले। इम श्रीमुख हरि आगले, श्रीसीमन्धर बोले-विमला० ॥३॥
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