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________________ ३८५ रिष्ट-उपद्रव। दुष्ट-ग्रह- को प्राप्त करानेवाला। गति-ग्रहोंका बुरा असर । नाम-ग्रहणं-नामोच्चारण । सम्पादित-हित-सम्पत् - जिसके- जयति-जयको प्राप्त होता है । द्वारा आत्महित और सम्पत्ति- । शान्तेः-श्रीशान्तिनाथ भगवान्का । अर्थ-सङ्कलना उपद्रव, ग्रहोंकी दुष्टगति, दु:स्वप्न, दुष्ट अङ्गस्फुरण और दुष्ट निमित्तादिका नाश करनेवाला तथा आत्महित और सम्पत्तिको प्राप्त करानेवाला श्रीशान्तिनाथ भगवानका नामोच्चारण जयको प्राप्त होता है ।। १५ ॥ [५ शान्ति-व्याहरणम् ] [ गाथा ] (१) श्रीसङ्घ-जगज्जनपद-राजाधिप-राज-सनिवेशानाम् । गोष्ठिक-पुरमुख्यानां, व्याहरणैाहरेच्छान्तिम् ॥१६॥ शब्दार्थ श्रीसंघ- जगज्जनपद-राजाधिप | कालमें विद्वन्मण्डलीको गोष्ठीके -राज-सन्निवेशानाम् - श्री- रूपमें पहचाननेकी रीति सङ्घ, जगत्के जनपद, महा- प्रचलित थी । पुरमुख्य-नगरके राजा और राजाओंके निवास- प्रधान कार्यकर्ता, अग्रगण्य स्थानोंके । नागरिक । गोष्ठिक-पुरमुख्यानां- विद्वन्मण्ड- व्याहरणैः-नामोच्चारण - पूर्वक, लीके सभ्य तथा अग्रगण्य नाम लेकर । नागरिकोंके। व्याहरेत्-वोलनी चाहिये। गोष्ठिक-गोष्ठोके सभ्य । प्राचीन- शान्तिम-शान्ति । प्र-२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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