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११ जगचिंतामरिण-सुत्तं [ 'जगचिन्तामणि' चैत्यवन्दन]
[ रोलाछन्द ] जगचिंतामणि ! जगहनाह ! जग-गुरू ! जग-रक्षण ! जग-बंधव ! जग-सत्थवाह ! जग-भाव-विअक्खण !। अट्टावय-संठविय-रूव ! कम्मदृ-विणासण ! चउवीस वि जिणवर ! जयतु अप्पडिहय-सासण ! ॥१॥
[ वस्तुछन्द ] कम्मभूमिहिं कम्मभूमिहिं पढमसंघयणि, उक्कोसय सत्तरिसय, जिणवराण विहरंत लगभइ: नवकोडिहिं केवलीण कोडिसहस्स नव साहु गम्मइ । संपइ जिणवर वीस मुणि, विहुं (हिं) कोडिहिं वरनाणि, समणह कोडि-सहस्स दुइ, थुणिज्जइ निच्च विहाणि ॥२॥ जयउ सामिय ! जयउ सामिय ! रिसह ! सत्तु जि, उज्जिति पहु-नेमिजिण ! जयउ वीर ! सच्चउर-मंडण!; भरुअच्छहिं मुणिसुव्वय ! महुरि पास ! दुह-दुरिअ-खंडण!। अवर विदेहि तित्थयरा, चिहुं दिसि विदिसि जि के वि, तीआणागय-संपइ य, वंदउं जिण सव्वे वि ।।३।।
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