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________________ ४६ विचरण करते हुए वज्र - ऋषभनाराच संघननवाले जिनोंकी संख्या अधिक-से-अधिक एकसौ सत्तरकी होती है, सामान्य केवलियोंकी संख्या अधिक-से-अधिक नौ करोड़की होती है और साधुओं की संख्या अधिक-से-अधिक नौ हजार करोड़ अर्थात् नब्बे अरबकी होती है । वर्तमान काल में तीर्थङ्कर बीस हैं, केवलज्ञानी मुनि दो करोड़ हैं और श्रमणोंकी संख्या दो हजार करोड़ अर्थात् बीस अरब हैं जिनका कि नित्य प्रातः काल में स्तवन किया जाता है ||२|| हे स्वामिन्! आपकी जय हो ! जय हो ! शत्रुञ्जयपर स्थित है ऋषभदेव ! उज्जयन्त ( गिरनार ) पर विराजमान हे प्रभो नेमिजिन ! साँचोरके शृङ्गाररूप हे वीर ! भरुच में विराजित हे मुनिसुव्रत ! मथुरा में विराजमान, दुःख और पापका नाश करनेवाले हे पार्श्वनाथ ! आपकी जय हो; तथा महाविदेह और ऐरावत आदि क्षेत्रोंमें एवं चार दिशाओं और विदिशाओं में जो कोई तीर्थंङ्कर भूतकाल में हो गये हों; वर्तमानकालमें विचरण करते हों और भविष्य में इसके पश्चात् होनेवाले हों, उन सभीको मैं वन्दन करता हूँ ||३|| तीन लोक में स्थित आठ करोड़ सत्तावन लाख, दोसौ बयासी( ८,५७,००,२८२ ) शाश्वत चैत्योंको मैं वन्दन करता हूँ ||४|| तीन लोकमें विराजमान पन्द्रह अरब, बयालीस करोड़, अट्ठावन लाख, छत्तीस हजार अस्सी - ( १५, ४२, ५८, ३६०८० ) शाश्वतबिम्बोंको मैं प्रणाम करता हूँ ||५|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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