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देनी । फिर दूसरी बार 'निसीही' बोलकर रङ्गमण्डपमें प्रवेश करके, दर्शन - स्तुति करके, खमा० प्रणि० करके, इरियावही पडिक्कमण करना । फिर मन्दिर सौ हाथसे अधिक दूर हो तो 'गमणागमणे' आलोचना और तीन बार खमा० प्रणि० करके 'निसीहि' कहकर चैत्यवन्दन करना । वह पूर्ण होनेपर जिनमन्दिरसे बाहर निकलते समय तीन बार 'आवस्सही' कहकर उपाश्रयमें आना । वहाँ तीन बार 'निसोहि' कहकर प्रवेश करना और सौ हाथसे अधिक जाना हुआ हो, तो इरियावही पडिक्कमण करना तथा 'गमणागमणे' 'आलोचना ।"
(११) यदि चातुर्मास हो तो मध्याह्न के देव - वन्दन से पहले दूसरी बारका काजा लेना चाहिये । उसके लिये एक व्यक्तिको इरियावही पडिक्कमण करके काजाको लेना चाहिये और उसे शुद्ध करके योग्य स्थान पर परठवना चाहिये । ( तदनन्तर इरियावही पडिक्कमण नहीं करना) | फिर मध्याह्नका देववन्दन करना । उसकी विधि पूर्ववत् जाननी । फिर जिसको पानीका उपयोग करना हो अथवा आयंबिल, एकाशन करने जाना हो उसको पच्चक्खाण पूर्ण करना चाहिये | ( पच्चक्खाण पूर्ण करने की विधि अन्यत्र दी हुई है | )
( १२ पानी पीना हो उसको घड़ा तथा कटोरी ( ग्लास )
१. जव सौ हाथसे अधिक जाना हुआ हो, अथवा कुछ भी परठवना हो तब इरियावही पडिक्कमण करना और 'गमणागमणे' आलोचना ।
२. वापरनेके पात्र अक्षरोंसे अङ्कित नहीं होने चाहिये, क्यों कि अक्षर पर होठ लगने से अथवा झूठे पानीका स्पर्श होनेसे ज्ञानावरणीय कर्म बँधता है ।
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