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________________ ५२६ [१४] दैवसिक प्रतिक्रमणकी विधिके हेतु १. विरतावस्थामें को हुई क्रिया पुष्टिकारक और फलदायिनी होती है, अतः प्रतिक्रमणके आदिमें सामायिक ग्रहण किया जाता है। २. फिर पच्चक्खाण लेने के लिये गुरुके विनयार्थ मुहपत्ती पडिलेहकर द्वादशावत-वन्दन किया जाता है। पच्चक्खाण यह छठा आवश्यक है, परन्तु वहाँ तक पहुँचने में दिवस-चरिप-प्रत्याख्यानका समय बीत जाता है इसलिये सामायिकके बाद शीघ्र ही पच्चक्खाण किया जाता है। ३. सब धर्मानुष्ठान देव-गुरुके वन्दन-पूर्वक सफल होते हैं, अतः प्रथम यहाँ देववन्दन किया जाता है । चैत्यवन्दनभाष्यमें उसके उसके बारह अधिकार इस प्रकार हैं :"नमु जे अई अरिहं लोग सव्व पुक्ख तम सिद्ध जो देवा । उज्जित चत्ता वेआवच्चग अहिगार पढमपया ॥ ४२ ॥ पढमहिगारे बंदे, भावजिणे बीयए उ दव्वजिणे ॥ इगचेइअ-ठवण-जिणे, तइय-चउत्थंमि नामजिणे॥४३॥ तिहुअण-ठवण-जिणे, पुण पंचमए विहरमाणजिण छठे । सत्तमए सुयनाणं, अट्ठमे सव्व-सिद्ध-थुई ।। ४४ ॥ तित्थाहिव-वीर-थुई, नवमे दसमे य उज्जयं (ज्जि)त-थुई । अट्ठावयाइ इगद(गार) सि, सुदिद्विसुर-समरणा चरिमे ॥४५॥ देव-वन्दनके बारह अधिकारोंमें प्रथम पद इस प्रकार समझने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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