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________________ ६२ तुह सम्म लद्धे, चिंतामणि- कप्पपायव-व्भहिए । पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ||४॥ इअ संधुओ महायस ! भत्ति-भर- निव्भरेण हिअएण । ता देव ! दिज्ज बोहिं भवे भवे पास - जिणचंद ! ||५|| शब्दार्थ उवसग्गहरं - उपद्रवोंको दूर करने - | कंठे वाले | पासं - समीप, भक्तजनोंके समीप । पासं-तेईसवें तीर्थङ्कर श्रीपार्श्वनाथ भगवान्को । हुए 1 वंदामि - मैं वन्दन करता हूँ । कम्म - घण - मुक्कं - कर्म - समूहसे मुक्त बने कम्म - आत्माकी शक्तियोंका आवरण करनेवाली एक प्रकार के पुद्गलकी वर्गणा । घण - समूह | मुक्क - छूटे हुए, रहित । विसहर - विस- निन्न। सं - सर्पके करनेवाले, नाश विषका मिथ्यात्व आदि दोषोंको दूर करनेवाले | मंगल-कल्लाण - आवासं - मङ्गल और कल्याणके गृहरूप | विसहर - फुलिंग - मंतं- 'विसहरफुलिंग' नामक मन्त्रको । Jain Education International धारण धारेइ - कण्ठमें करता है, स्मरण करता है । जो-जो । |सया - नित्य । मणुओ - मनुष्य | तस्स - उसके । गह-रोग-मारी - दुट्टुजरा — ग्रहचार, महारोग, मारण-प्रयोग अथवा महामारी आदि उत्पात तथा विषमज्वर | गह-ग्रहचार, ग्रहोंका अनुचित प्रभाव । रोग - सोलह महारोग | मारी - अभिचार या मारण-प्रयोगसे सहसा फूट निकलनेवाले रोग अथवा महामारी | दुट्टजरा - दुष्ट विषमज्वर, ज्वर, कफज्वर, सन्निपात आदि । जंति हो जाते हैं । उवसामं - शान्त | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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