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________________ ३३६ रूव-रूप । पिंजरं-तपाये हुए सुवर्णकी । सुइ-कान । सुह-सुख । कान्ति जैसे स्वच्छ पीत वर्णवाले। मणाभिराम-मनको आनन्द धंत-तपाया हुआ। कणग- देनेवाला। रमणिज्ज-रमसुवर्ण। रुअग-कान्ति । णीय । निनाय-नाद, ध्वनि । निरुबहय-स्वच्छ । पिंजर महुरयर-अत्यन्त मधुर । पीतवर्ण । सुह-मङ्गल। गिर्-वाणी। | सुहगिरं-मंगलमय । पवर - लक्खणोचिय - सोम अजियं -श्रीअजितनाथ भगवान्को। चारु-रूवं-श्रेष्ठ लक्षणोंसे युक्त, जियारिगणं-अन्तरके शत्रुओंपर . शान्त और मनोहर रूपवाले । जय प्राप्त करनेवाले। पवर-श्रेष्ठ । लक्खण-लक्षण । जिय-सव्व-भयं-सर्व भयोंको उवचिय-युक्त। सोम जीतनेवाले। शान्त । चारु - मनोहर ।। भवोह-रिउं-भव-परम्पराके प्रबल शत्रु । सुइ - सुह - मणाभिराम- पणमामि-नमस्कार करता हूँ। परम - रमणिज्ज - वर - देव- | अहं-मैं । दुन्दुहि - निनाय - महुरयर - पयओ-मन, वचन और कायाके कानोंको सुखकारक, मनको प्रणिधानपूर्वक । आनन्द देनेवाले, अति रमणीय | पावं-पापका, अशुभ कर्मोंका। और श्रेष्ठ ऐसे देवदुन्दुभिके | पसमेउ-प्रशमन करो। नादसे अतिमधुर और मङ्गलमय | मे-मेरे । वाणीवाले। | भयवं-हे भगवन् । अर्थ-सङ्कलना जो दीक्षासे पूर्व श्रावस्ती ( सहेट) के राजा थे, जिनका संस्थान श्रेष्ठ हाथीके कुम्भस्थल जैसा प्रशस्त और विस्तीर्ण था, जो निश्चल और अविषम वक्षःस्थलवाले थे (जिनके वक्षःस्थल पर निश्चल श्रीवत्स था ), जिनकी चाल मद झरते हुए और लीलासे चलते हुए Jain Education International national For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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