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________________ ३३७ श्रेष्ठ गन्धहस्तिके जैसी मनोहर थी, जो सर्व प्रकार से प्रशंसाके योग्य थे, जिनकी भुजाएँ हाथी की सूड़के समान दीर्घ और गठीली थीं, जिनके शरीरका वर्ण तपाये हुए सुवर्णकी कान्ति जैसा स्वच्छ पीला था, जो श्रेष्ठ लक्षणोंसे युक्त, शान्त और मनोहर रूपवाले थे,जिनकी वाणी कानोंको प्रिय, सुखकारक, मनको आनन्द देनेवाली, अतिरमणीय और श्रेष्ठ ऐसे देवदुन्दुभिके नादसे भी अतिमधुर और मङ्गलमय थी, जो अन्तरके शत्रुओंपर विजय प्राप्त करनेवाले थे, जो सर्व भयोंको जोतनेवाले थे, जो भव-परम्पराके प्रबल शत्रु थे, ऐसे श्रीअजितनाथ भगवान्को मैं मन, वचन और कायाके प्रणिधानपूर्वक नमस्कार करता हूँ और निवेदन करता हूँ कि 'हे भगवन् ! आप मेरे अशुभ कर्मोंका प्रशमन करो॥९-१०॥ मूल ( दूसरे सन्दानितकद्वारा श्रीशान्तिनाथकी स्तुति ) कुरु-जणवय-हत्थिणाउर-नरीसरो य पढम तओ महाचक्कवट्टि-भोए महप्पभावो, - जो बावत्तरि-पुरवर-सहस्स-वर-नगर-निगम-जणवय-वई-बचीसा-रायवर-सहस्साणुयाय-मग्गो । चउदस-वररयण-नव-महानिहि-चउसट्ठि- सहस्सपवर-जुवईण-सुन्दरवई, चुलसी-हय-गय--रह--सयसहस्स--सामी छन्नवइ-- गामकोडि-सामी य आसी जो भारहमि भयवं ॥११॥ -वेड्ढओ ( वेढो ) ॥ प्र-२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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