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४६६ आभ्यंतर तप-"पायछित्तं विणओ०" शुद्ध अंतःकरण पूर्वक गुरु महाराज से आलोचना न ली। गुरु की दी हुई आलोचना संपूर्ण न की। देव, गुरु, संघ, साधर्मी का विनय न किया। बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी आदि की वेयावच्च (सेवा) न की। वाचना, पृच्छना, परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा रूप पांच प्रकार का स्वाध्याय न किया। धर्म-ध्यान, शुक्लध्यान ध्याया नहीं । आर्त्त-ध्यान, रौद्र-ध्यान ध्याया। दुःखक्षय, कर्म-क्षय निमित्त दस बीस लोगस्स का काउस्सग्ग न किया । इत्यादि आभ्यंतर (भीतरी) तप संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
वीर्याचार के तीन अतिचार-'अणिगृहिअबल-विरिओ०' पढ़ते, गुणते, विनय वेयावच्च, देवपूजा, सामायिक, पौषध, दान, शील, तप, भावनादिक धर्म-कृत्य में, मन, वचन, काया का बल-वीर्य पराक्रम फोरा नहीं । विधिपूर्वक पंचांग खमासमण न दिया । द्वादशावते वंदन की विधि भली प्रकार न की । अन्य चित्त निरादर से बैठा । देव वंदन, प्रतिक्रमण में जल्दी की, इत्यादि वीर्याचार संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
"नाणाई अट्ठ पइवय, समसंलेहण पण पन्नर कम्मेसु ।
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