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________________ ४६७ बारस तब विरिअ तिगं, चउव्वीसं सय अइयारा ॥" "पडिसिद्धाणं करणे०" प्रतिषेध-अभक्ष्य अनंतकाय बहुबीज भक्षण, महारंभ, परिग्रहादि किया । देवपूजन आदि षट्कर्म, सामायिकादि छह आवश्यक, विनयादिक, अरिहंत की भक्ति प्रमुख करणीय कार्य किये नहीं । जीवाजीवादि सूक्ष्म विचार की सद्दहणा न की । अपनी कुमति से उत्सुत्र प्ररूपणा की तथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, रागद्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति-अरति, परपरिवाद, माया-मृषावाद, मिथ्यात्व-शल्य, ये अठारह पाप-स्थान किये, कराये, अनुमोदे । दिनकृत्य प्रति-क्रमण, विनय, वैयावृत्य न किया । और भी जो कुछ वीतराग की आज्ञा से विरुद्ध किया, कराया या अनुमोदन किया। इन चार प्रकार के अतिचारों में जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥ एवंकारे श्रावकधर्म सम्यक्त्व मूल बारह व्रत संबंधी एक सौ चौबीस अतिचारों में से जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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