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देववंदन न किया, प्रतिक्रमण न किया। पौषध देरी से लिया और जल्दी पारा, पर्व-तिथि को पोसह न लिया। इत्यादि ग्यारहवें पौषध व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्षदिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
बारहवें अतिथि-संविभाग व्रत के पाँच अतिचार'सचित्ते निक्खिवणे०' सचित्त वस्तु के संघट्टे वाला अकल्पनीय आहार पानी साधु-साध्वी को दिया। देने की इच्छा से सदोष वस्तु को निर्दोष कही। देने की इच्छा से पराई वस्तु को अपनी कही । न देने की इच्छा से निर्दोष वस्तु को सदोष कही । न देने की इच्छा से अपनी वस्तु को पराई कहा । गोचरी के समय इधर-उधर हो गया । गोचरी का समय टाला । वेवक्त साधु महाराज से प्रार्थना की । आये हुए गुणवान् की भक्ति न की । शक्ति के होते हुए स्वामीवात्सल्य न किया। अन्य किसी धर्मक्षेत्र को पड़ता देख कर मदद न की। दीन-दुखी पर अनुकंपा न की । इत्यादि बारहवें अतिथि-संविभाग-व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्षदिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
संतोषणा के पांच अतिचार- "इहलोए परलोए०" इहलोगासंसप्पओगे परलोगा-संसप्पओगे । जीविआसंसप्पओगे।
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