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________________ ५३० प्रतिक्रमणकी क्रिया देव और गुरुकी विनयके साथ करनी चाहिये। इसलिये दूसरे आवश्यकके रूपमें देवकी विनयमें 'चउवीसत्थय-सुत्त' अर्थात् 'लोगस्स' सूत्र बोलकर चौबीस जिनेश्वरदेवोंको वन्दन किया जाता है। ६. इसके बाद गुरु-विनयरूप गुरुवन्दन करनेकी प्राथमिक तैयारीके रूपमें मुहपत्तीका पचास बोलपूर्वक पडिलेहण किया जाता है। हेयका परिमार्जन करने और उपादेयकी उपस्थापना करनेके लिये यह क्रिया अत्यन्त रहस्यमयी है, अतः इसकी उचित विधि गुरु अथवा पूज्य व्यक्तिके पाससे बराबर जान लेनी और तदनुसार क्रिया करने में सावधानी रखनी चाहिये । गुरु-वन्दनमें पचीस आवश्यकका ध्यान रखना और बत्तीस दोषोंका त्याग करने के लिये खास उपयोग रखना। ७. गुरुको द्वादशावर्त्तसे वन्दन कर लेनेके पश्चात् चौथे "सयणासण-न्न-पाणे, चेइअ-जइ-सिज्ज-काय-उच्चारे। समिई भावण-गुत्ती-वितहायरणे अईआरा ॥" ---शयन, आसन, अन्न-पानी आदि अविधिपूर्वक ग्रहण करनेसे, चैत्यके बारेमें अविधिपूर्वक वन्दन करनेसे, मुनियोंका यथायोग्य विनय न करनेसे, वसति आदि अविधिपूर्वक प्रमार्जन करनेसे, स्त्री आदिसे युक्त स्थानपर रहनेसे, उच्चार-मल-मूत्रका सदोष स्थानमें वर्जन करनेसे, पाँच समिति, बारह भावना और तीन गुप्तिका अविधिपूर्वक सेवन करनेसे, अर्थात् शयन, आसनादि सम्बन्धी क्रियामें विपरीत आचरण होनेसे जो अतिचार लगे हों उनको सँभारना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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