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________________ ३०३ ताः -वे | वाच:- वाणी, वचन | देशना-समये - धर्मोपदेश करते श्रीसम्भवजगत्पतेः - श्री सम्भवनाथ समय । भगवन्तको । अर्थ- सङ्कलना धर्मोपदेश करते समय जिनकी वाणी विश्वके भव्यजनरूपो बगीचेको सींचनेके लिये नालोके समान है, वे श्रीसम्भवनाथ भगवन्तके वचन जयको प्राप्त हो रहे हैं ।। ५॥ मूल- अनेकान्त-मताम्मोधि - समुल्लासन - चन्द्रमाः । भगवानभिनन्दनः ||६ ॥ दद्यादमन्दमानन्दं शब्दार्थ अनेकान्त - मताम्भोधि - समुल्लासन- चन्द्रमा:- अनेकान्त मतरूपी समुद्रको पूर्णतया उल्लसित करनेके लिये चन्द्रस्वरूप । अनेकान्तमत - वस्तुको भिन्न भिन्न दृष्टिबिन्दु से देखनेका सिद्धान्त । अम्भोधि - समुद्र । समुल्लासन-अच्छी प्रकार से Jain Education International उल्लसित करना | चन्द्रमाः -चन्द्र । 1 दद्याद्-दे, प्रदान करें अमन्दम् - अति, परम । आनन्दं - आनन्द | भगवान् - भगवान् । अभिनन्दन:- श्रीअभिनन्दन नामके चौथे तीर्थङ्कर । अर्थ- सङ्कलना अनेकान्त - मतरूपी समुद्रको पूर्णतया उल्लसित करनेके लिये चन्द्र-स्वरूप भगवान् श्रीअभिनन्दन हमें परम आनन्द प्रदान करें ॥६॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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