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वहाँ अणिकाके साथ उसके लग्न हुए । वहाँसे वापस उत्तर-मथुरामें जा समय अणिकाने मार्ग पुत्रको जन्म दिया और उसका नाम सन्धीरण रखा, परन्तु जनतामें वे अणिकापुत्र के नामसे प्रसिद्ध हुए । योग्य आयुमें जयसिंह आचार्यसे दीक्षा ग्रहणकर क्रमानुसार वे आचार्य हुए। कुछ समय पश्चात् पुष्पचूल राजा को रानी-पूष्पचूलाने इनसे प्रतिबोध प्राप्तकर दीक्षा लो। एक समय दुष्काल पड़नेसे अन्य मुनिगण तो देशान्तर चले गये, किन्तु अणि का-पुत्र आचार्य वृद्ध होनेके कारण पुष्पचूल राजाके आग्रहसे वहीं रहे । पुष्पचूला उनकी वैय्यावृत्य करती थी, ऐसा करते-करते उसको केवलज्ञान हुआ। इस बातका आचार्यको समाचार मिला, तब उन्होंने केवली पुष्पचूलासे क्षमा माँगी और अपना मोक्ष कब होगा, यह प्रश्न पूछा ? इसका उत्तर मिला कि 'गङ्गा नदो पार उतरते समय तुम्हें मोक्ष प्राप्त होगा।' थोड़े समयके बाद जब वे अन्य मनुष्योंके साथ नौकामें बैठ कर गङ्गा नदी पार कर रहे थे तब जिस ओर आचार्य थे, उसी ओरसे नौका भारी होने लगी। इससे लोगोंने उनको उठा कर नदीमें फेंक दिया, परन्तु समभावमें स्थिर रहनेसे उसी समय उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इन आचार्यका शरीर तिरता हुआ नदीके किनारे आ गया। उस स्थान पर कुछ समयके अनन्तर पाटल नामक पौधा लग गया कि जहाँ कालान्तरमें पाटलिपुत्र नामका सुन्दर नगर बसा ।
७ अतिमुक्त मुनि :-पेढालपुर नगरमें विजय नामका राजा राज्य करता था। उसके श्रीमती नामकी रानी थी। उसको एक पुत्र हुआ। उसका नाम अतिमुक्त रखा। इस कुमारने आठ वर्षकी अवस्थामें मातापिताकी अनुमति लेकर श्रीगौतमस्वामीसे दीक्षा ली थी। ये एक समय प्रातःकालमें कुछ समयसे पूर्व गोचरी करनेके लिये निकले और एक सेठके यहाँ गये, तब सेठको पुत्रवधूने कहा कि 'अभी कैसे ? क्या बिलम्ब हो गया क्या ?' शब्द द्वयर्थक थे। गोचरी और दीक्षा दोनोंको लागू पड़ते थे। मुनि उनका मर्म समझ कर बोले कि 'मैं जो जानता हूँ, वह नहीं जानता।' यह सुनकर चतुर पुत्रवधू विचारमे पड़
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