SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तमा- उत्तम । सिद्धा-सिद्ध | आरुग्ग-बोहि-लाभ- कर्मक्षय तथा जिन - धर्मकी प्राप्तिको । आरुग्ग-रोग न हों ऐसी स्थिति अर्थात् कर्मक्षय | बोहिलाभ-जिन - धर्मकी प्राप्ति । समाहिवर - भावसमाधि | उत्तमं श्रेष्ठ, उत्तम । दितु-दें, प्रदान करें । चंदेसु-चन्द्रोंसे । निम्मलयरा- अधिक निर्मल, स्वच्छ । अर्थ-सङ्कलना २९ आइच्चे सु-सूर्यो॑से । अहियं-अधिक पयासयरा - प्रकाश करनेवाले | Jain Education International सागर - वर-गंभीरा श्रेष्ठ सागर अर्थात् स्वयंम्भूरमण समुद्रसे अधिक गम्भीर | ( उजाला ) सिद्धा-सिद्धावस्था प्राप्त किये हुए, सिद्ध भगवान् । सिद्धि-सिद्धि । मम मुझे | दिसंतु-प्रदान करें। चौदह राजलोकों में स्थित सम्पूर्ण वस्तुओंके स्वरूपको यथार्थरूपमें प्रकाशित करनेवाले, धर्मरूपी तीर्थका प्रवर्तन करनेवाले, रागद्वेष के विजेता तथा त्रिलोकपूज्य ऐसे चौबीसों केवली भगवानोंकी मैं स्तुति करता हूँ ॥ १ ॥ श्री ऋषभदेव, श्री अजितनाथ, श्रीसम्भवनाथ श्रीअभिनन्दन - स्वामी, श्रीसुमतिनाथ, श्रीपद्मप्रभ, श्रीसुपार्श्वनाथ और श्रीचन्द्रप्रभजिनको मैं वन्दन करता हूँ ॥ २ ॥ श्री सुविधिनाथ अथवा पुष्पदन्त, श्रीशीतलनाथ, श्रीश्रेयांसनाथ, श्रीवासुपूज्य, श्रीविमलनाथ, श्रीअनन्तनाथ, श्रीधर्मनाथ तथा श्रीशान्तिनाथजिनको मैं वन्दन करता हूँ || ३ | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy