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[ गाथा ] (२) शिवमस्तु सर्वजगतः, पर-हित-निरता भवन्तु भूतगणाः।
दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥२१॥ शब्दार्थशिवम्-कल्याण ।
दोषाः--व्याधि, दुःख, दौर्मनस्यादि। अस्तु-हो।
प्रयान्तु नाशं-नष्ट हों। सर्व-जगतः-अखिल विश्वका ।।
सर्वत्र सर्वत्र । पर-हित-निरताः- परोपकार में तत्पर ।
सुखी-सुख भोगनेवाले। भवन्तु-हों।
भवतु-हों। भूतगणाः-प्राणी।
| लोकः-मनुष्यजाति, मनुष्य । अर्थ-सङ्कलना
अखिल विश्वका कल्याण हो, प्राणी परोपकारमें तत्पर बनें; व्याधि-दुःख-दौर्मनस्य आदि नष्ट हों और सर्वत्र मनुष्य सुख भोगनेवाले हों ।। २१ ॥
मूल
(३) अहं तित्थयर-माया, सिवादेवी तुम्ह नयर-निवासिनी। अम्ह सिवं तुम्ह सिवं, असिवोवसमं सिवं भवतु स्वाहा।।२२।। शब्दार्थअहं-मैं।
श्रीअरिष्टनेमि तीर्थङ्करकी माता तित्थयर-माया-तीर्थङ्करकी माता। का नाम शिवादेवी है। सिवादेवी-शिवादेवी।
तुम्ह-तुम्हारे।
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