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________________ ५६४ नेहघेलुं मन म्हारुं रे प्रभु अलजे रहे, तनमनधन ते कारणथी प्रभु मुज जो । म्हारे तो आधार रे साहेब रावरो, अन्तरगतनी प्रभु आगल कहुं गुंज जो - प्रीतलडी० ॥ २ ॥ साहेब ते साचो रे जगमां सेवकनां जे सहेजे सुधारे एहवे रे आचरणे केम करी रहूं, बिरुद तमारुं तारण तरण - जहाज जाणीए, काज जो । जो—- प्रीतलडी ० ॥ ३ ॥ तारकता तुज मांहे रे श्रवणे सांभली, ते भणी हुं आव्यो छु दीनदयाल जो । तुज करुणानी लहेरे रे मुज कारज सरे, शुं घणुं कहीए जाण आगल कृपाल जो - प्रीतलडी ० ।। ४ ।। करुणाधिक कीधी रे सेवक ऊपरे, भवभय भावठ भांगी भक्ति प्रसंग जो । मनवांछित फलीया रे प्रभु आलम्बने, कर जोड़ोने मोहन कहे मनरंग Jain Education International जो - प्रीतलडी० ॥ ५ ॥ ( ६ ) श्रीसम्भवनाथस्वामीका स्तवन सम्भवदेव ते धुर सेवो सबेरे, लहो प्रभु सेवन भेद । सेवन कारण पहेलो भूमिका रे, अभय अद्वेष अखेद - सम्भव० ।। १ ।। भय चञ्चलता हो जे परिणामनी रे, द्वेष अरोचक भाव | खेदप्रवृत्ति हो करता थाकीये रे, दोष अबोध लखाव- सम्भव० ||२|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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