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________________ २९१ करना, (२) पालना - अर्थात् प्रत्याख्यानका हेतु लक्ष्य में रखकर वर्तन करना, (३) शोभना - अर्थात् प्रत्याख्यान पूर्ण करने से पूर्व अतिथि - संविभाग करना, (४) तीरणा - अर्थात् प्रत्याख्यानका समय पूर्ण होने तक धैर्य रखकर उससे कुछ अधिक समय जाने देना, (५) कीर्तना - अर्थात् प्रत्याख्यान पूर्ण होने पर उसका उत्साहपूर्वक स्मरण करना और (६) आराधना - अर्थात् कर्मक्षय के निमित्तसे ही प्रत्याख्यान करना । प्रश्न - प्रत्याख्यान से कौनसे लाभ होते हैं ? उत्तर - प्रत्याख्यानसे मनको दृढ़ता ( एकाग्रता ) प्राप्त होती है, त्यागकी शिक्षा मिलती है, चारित्रगुणकी धारणा होती है, आस्रवका निरोध होता है, तृष्णाका छेद होता है, अतुलनीय उपशम गुणको उपलब्धि होती है और क्रमशः सर्व संवरकी प्राप्ति होकर अणाहारीपदकी प्राप्ति होती है । मूल ५१ श्रीवर्धमानजिन - स्तुतिः [ ' स्नातस्या' - स्तुति ] ( शार्दूलविक्रीडित ) स्नातस्याप्रतिमस्य मेरुशिखरे शच्या विभोः शैशवे, रूपालोकन - विस्मयाहृत - रस - भ्रान्त्या भ्रमच्चक्षुषा । नयन - प्रभा - धवलितं क्षीरोदकाशङ्कया, वक्त्रं यस्य पुनः पुनः स जयति श्रीवर्धमानो जिनः ॥ १ ॥ उन्मृष्टं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org •
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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