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निमित्त यह सूत्र बोला जाता है। इसमें पहलो स्तुति श्रीवीरजिनेश्वरकी है, दूसरी स्तुति सामान्य जिनों की है और तीसरी स्तुति श्रीतीर्थङ्करकी वाणोकी है।
४० साहुवंदरण--सुत्तं [ ‘अड्ढाइज्जेसु'-सूत्र ]
मूल
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अड्ढाइज्जेसु दीव-सखुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु । जावंत के वि साहू, रयहरण-गुच्छ-पडिग्गह-धारा ॥१॥ पंचमहव्वय-धारा, अट्ठारस-सहस्स-सीलंग-धारा । अक्खयायार-चरित्ता,ते सव्वे सिरसामणसा मत्थएणवंदामि।२। शब्दार्थअड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु- जावंत के वि साहू-जो कोई जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, और भी साधु । अर्धपुष्कर द्वीपमें, ढाई द्वीपमें। रयहरण-गुच्छ-पडिग्गह-धाराअड्ढाइज्जेसु-अर्ध तीसरेमें, रजोहरण, गुच्छक और अर्धपुष्करद्वीपमें ।
( काष्ठ) पात्रको धारण
करनेवाले। दोच-समुद्दसु-द्वीप और समुद्र में
जम्बूद्वीप और धातकीखण्डमें । रयहरण-रजको दूर करनेवाला पण्णरससु-पन्द्रह।
उपकरण-विशेष। गुच्छकम्मभूमिसु-कर्मभूमियोंमें।
पातरेकी झोली पर ढंकनेका
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