SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 532
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मानसिक होनेसे ऐसे प्रसङ्ग अनेक बार आते हैं कि जब साधक संशय अथवा खेदके विषम जाल में फंस जाता है । ऐसे प्रसङ्गपर सद्गुरुके अतिरिक्त कौन संशयका निवारण करे? कौन खेदको दूर करे ? इन्द्रभूति गौतमके संशय श्रीवीरप्रभुने दूर किये थे, अतः सद्गुरुका सान्निध्य सामायिक जैसे योगानुष्ठानके लिये अत्यन्त आवश्यक है। शरीर, वस्त्र और उपकरणकी शुद्धिपूर्वक सामायिककी साधना करनेको तत्पर हुआ साधक भूमिका प्रमार्जन करके सद्गुरुके सान्निध्यमें सामायिकका अनुष्ठान करे। जिस साधकको सद्गुरुका योग नहीं मिले वह गुरुके विनयको सुरक्षित रखनेके लिये उनकी स्थापना करके काम चलाये । ऐसो स्थापना करने के लिए बाजठ आदि उच्च आसनपर अक्ष, वराटक, धार्मिक-पुस्तक अथवा जपमाला आदि रखकर उसमें गुरुपदकी भावना की जाती है । तदर्थ 'स्थापना-मुद्रा' से दाहिना हाथ उसके सम्मुख रखकर तथा बाँये हाथमें मुहपत्ती धारणकर उसको मुखके आगे रखकर प्रथम मङ्गलके रूपमें नमस्कार-मन्त्रका पाठ बोला जाता है । बादमें 'पंचिदियसुत्तं' (गुरु-स्थापना-सूत्र ) बोला जाता है। इस प्रकार आचार्यपदकी स्थापना होने पर सामने रखी हुई वस्तुएँ विधिवत् ‘स्थापनाचार्य' माने जाते हैं और उसके पश्चात् जो जो आदेश या अनुज्ञाए लनी हों, वे सब उनके पाससे ली जाती हैं। 'गुरुमहाराजके स्थापनाचार्य' हों तो यह विधि करनेको आवश्यकता नहीं, परन्तु 'स्थापनाचार्य' इस प्रकार रखे हुए होने चाहिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy