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________________ ३०५ अन्तरङ्गारि - मथने आन्तरिक | कोपाटोपाद् - कोपके आटोपसे, क्रोध के आवेशसे । शत्रुओंका हनन करने के लिये । अन्तरङ्ग आन्तरिक । अरि - शत्रु । मथन - हनन करना । अर्थ-सङ्कलना - आन्तरिक शत्रुओं का हनन करनेके लिये क्रोधके आवेशसे मानो लाल रङ्गकी हो गयी हो ऐसी श्रीपद्मप्रभ - स्वामी के शरीरकी कान्ति तुम्हारी आत्म - लक्ष्मीकी पुष्ट करे ॥ ८ ॥ मूल श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय, महेन्द्र - महिताये । चतुर्वर्ण- सङ्घ - गगनाभोग - भास्वते ||९|| शब्दार्थ श्रीसु श्रीसुपार्श्व जिनेन्द्राय पार्श्वनाथ भगवान् के लिये । महेन्द्र - महिताङ्घ्रये - महेन्द्रों से पूजित चरणोंवाले | इव - मानो । अरुणाः - लाल रङ्गकी | महेन्द्र - बड़ा इन्द्र | महितपूजित | अङ्घ्रि-चरण । नमः - नमस्कार हो । चतुर्वर्ण-सङ्घ- गगनाभोगभास्वते - चतुर्विध संघरूपी अर्थ- सङ्कलना- Jain Education International आकाश मण्डल में सूर्य --सदृश के लिये | } चतुर्वर्ण - जिसमें चार वर्ण हैं ऐसा । चार वर्ण से यहाँ साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका समझना । सङ्घसमुदाय । गगन आकाश । आभोग - मण्डल । भास्वत्सूर्य । चतुर्विध सङ्घरूपी आकाशमण्डल में सूर्यसदृश और महेन्द्रोंसे पूजित चरणवाले श्रीसुपार्श्वनाथ भगवान्‌को नमस्कार हो ॥ ९ ॥ प्र-२० - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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