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अन्तरङ्गारि - मथने आन्तरिक | कोपाटोपाद् - कोपके आटोपसे,
क्रोध के आवेशसे ।
शत्रुओंका हनन करने के लिये । अन्तरङ्ग आन्तरिक । अरि
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शत्रु । मथन - हनन करना ।
अर्थ-सङ्कलना
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आन्तरिक शत्रुओं का हनन करनेके लिये क्रोधके आवेशसे मानो लाल रङ्गकी हो गयी हो ऐसी श्रीपद्मप्रभ - स्वामी के शरीरकी कान्ति तुम्हारी आत्म - लक्ष्मीकी पुष्ट करे ॥ ८ ॥
मूल
श्री सुपार्श्व जिनेन्द्राय, महेन्द्र - महिताये । चतुर्वर्ण- सङ्घ - गगनाभोग - भास्वते ||९||
शब्दार्थ
श्रीसु
श्रीसुपार्श्व जिनेन्द्राय पार्श्वनाथ भगवान् के लिये । महेन्द्र - महिताङ्घ्रये - महेन्द्रों से पूजित चरणोंवाले |
इव - मानो ।
अरुणाः - लाल रङ्गकी |
महेन्द्र - बड़ा इन्द्र | महितपूजित | अङ्घ्रि-चरण । नमः - नमस्कार हो । चतुर्वर्ण-सङ्घ- गगनाभोगभास्वते - चतुर्विध संघरूपी
अर्थ- सङ्कलना-
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आकाश मण्डल में सूर्य --सदृश के
लिये |
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चतुर्वर्ण - जिसमें चार वर्ण हैं ऐसा । चार वर्ण से यहाँ साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका समझना । सङ्घसमुदाय । गगन आकाश । आभोग - मण्डल । भास्वत्सूर्य ।
चतुर्विध सङ्घरूपी आकाशमण्डल में सूर्यसदृश और महेन्द्रोंसे पूजित चरणवाले श्रीसुपार्श्वनाथ भगवान्को नमस्कार हो ॥ ९ ॥
प्र-२०
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