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________________ २४८ दूसरे देवलोक में अट्ठाईस लाख, तीसरे देवलोक में बारह लाग चौथे देवलोक में साठ लाख और पाँचवें देवलोक में चार लाख सिं भवनोंको मैं वन्दन करता हूँ ॥ २ ॥ छठे देवलोकमें पचास हजार, सातवें देवलोक में चालीस हजार, आठवें देवलोक में छः हजार, नौवें और दसवें देवलोकके मिलकर चारसौ जिन भवनों को मैं वन्दन करता हूँ ॥ ३ ॥ ग्यारहवें और बारहवें देवलोकके मिलकर तीनसौ, नौ ग्रैवेयक में तीनसी अठारह तथा पाँच अनुत्तर विमानमें पाँच जिन - भवन मिलकर चौरासी लाख, सत्तानवे हजार तेईस जिन भवन हैं, उनको मैं वन्दन करता हूँ कि जिनका अधिकार शास्त्रों में वर्णित है । ये जिन - भवन सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और बहत्तर योजन ऊँचे हैं ।। ४-५ ।। 1 इन प्रत्येक जिन -- भवनों अथवा चैत्योंमें सभा - सहित १८० जिन - बिम्बों का प्रमाण है; इस प्रकार सब मिलकर एकसौ बावन करोड़ चौरानवे लाख, चौंतालीस हजार सातसौ साठ (१५२९४४४७६०) विशाल जिन - प्रतिमाओंका स्मरणकर तीनों काल मैं प्रणाम करता हूँ । भवनपति के आवासोंमें सात करोड़, बहत्तर लाख (७७२०००००) जिन - चैत्य कहे हुए हैं ।। ६-७ ।। इन प्रत्येक चैत्योंमें एकसौ अस्सी जिन बिम्ब होते हैं । अतः सब मिलकर तेरह सौ नवासी करोड़ और साठ लाख (१३८९६००००००) जिन बिम्ब होते हैं, जिन्हें हाथ जोड़कर में वन्दन करता हूँ ॥ ८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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