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सव्वे जिणिंदा सुर-विंद-वंदा, कल्लाण-वल्लीण विसाल--कंदा ॥२॥ निव्वाण--मग्गे वर-जाण-कप्पं, पणासियासेस-कुवाइ-दप्पं । मयं जिणाणं सरणं बुहाणं, नमामि निच्चं तिजग--प्पहाणं ॥३॥ कुंदिंदु--गोखीर-तुसार-वन्ना, सरोज--हत्था कमले निसन्ना । वाईसरी-पुत्थय-वग्ग--हत्था, सुहाय सा अम्ह सया पसत्था ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
कल्लाण-कंद-कल्याणरूपी वृक्षके | सुगुणिक्क-ठाणं-सभी सद्गुण
मूलको, कल्याणके कारणरूपको। जहाँ एकत्रित हुए हैं ऐसे, पढम-पहले, प्रथम ।
__ सर्व सद्गुणोंके स्थानरूप। जिणिदं-जिनेन्द्रको, तीर्थङ्कर श्री- भत्तीइ-भक्ति-पूर्वक । __ ऋषभदेवको।
वंदे-मैं वन्दन करता हूँ। संति-श्रीशान्तिनाथको। सिरिवद्धमाणं - श्रीवर्धमानको, तओ-तदनन्तर ।
श्रीमहावीर स्वामीको। नेमिजिणं-नेमिजिनको, श्रीनेमि- अपार-संसार-समुद्द- पारंनाथको।
जिसका पार पाना कठिन है; मुणिदं-मुनियोंमें श्रेष्ठ ।
ऐसे संसार-समुद्र के किनारेको । पासं-श्रीपार्श्वनाथको।
पत्ता-प्राप्त किये हुए। पयासं-प्रकाश-स्वरूप । सिवं-कल्याण, मोक्षसुख ।
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