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जाता है। इस प्रकार सत्कारका निमित्त लेकर, सम्मानका निमित्त लेकर, बोधिलाभका निमित्त लेकर तथा मोक्षका निमित्त लेकर चित्त एकाग्र किया जाता है और उसके द्वारा वन्दनादिकसे
जो लाभ मिलते हैं, वे मिलें, ऐसी इच्छा की जाती हैं। प्रश्न-पृथक् पृथक् विषयोंमें भ्रमण करनेवाला चित्त एकाग्र किस तरह हो
सकता है ? उत्तर-यदि श्रद्धा धारण की जाय, प्रज्ञा ( मेधा ) विकसित की जाय,
धृति ( चित्तकी स्वस्थता ) रखी जाय, धारणाका अभ्यास किया जाय और अनुप्रेक्षा ( बार बार चिन्तन ) का फिर-फिरकर आश्रय लिया जाय, तो चित्त एक विषयमें एकाग्र हो सकता है ।
२० 'कल्लारण कंदं' थुई
[पञ्चजिन-स्तुति ]
मूल
[ उपेन्द्रवज्रा] कल्लाण-कंदं पढमं जिणिंदं, संतिं तओ नेमिजिणं मुणिंदं । पासं पयासं सुगुणिक-ठाणं, भत्तीइ वंदे सिरिवद्धमाणं ॥१॥
[उपजाति ] अपार-संसार-समुद्द-पारं, पत्ता सिवं दितु सुइक-सारं ।
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