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________________ अर्थ- सङ्कलना अब पाँचवें अणुव्रत के विषय में (लगे हुए अतिचारोंका प्रतिक्रमण किया जाता है ।) यहाँ प्रमाद के प्रसङ्गसे अथवा क्रोधादि अप्रशस्त भावका उदय होनेसे परिग्रह - परिमाण - व्रतमें अतिचार लगे ऐसा जो कोई आचरण किया हो, उससे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ १७ ॥ मूल— धण - धन्न - खित्त-वत्थू - रुप्प - सुवन्ने अ कुविअ - परिमाणे । दुपए चउप्पयम्मिय, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ १८ ॥ शब्दार्थ धण - धन्न - खित्त - वत्थू - रुप्प - सुवन्ने - धन-धान्य- प्रमाणातिक्रममें, क्षेत्र - वास्तु प्रमाणातिक्रममें, रौप्य - सुवर्ण- प्रमाणातिक्रम | १३३ वण - गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य वस्तुओंका सङ्ग्रह धन कहाता है । गणिम अर्थात् गिनकर लेने योग्य वस्तुएँ, जैसे- रोकड़े रुपये ( नोट ), सुपारी, श्रीफल आदि । धरिम अर्थात् तौलकर ली जाय ऐसी वस्तुएँ, जैसे कि गुड़, आदि । मेय अर्थात् माप शक्कर Jain Education International कर लेने योग्य वस्तुएँ, जैसे कि घी, तेल, कपड़ा आदि । परिच्छेद्य अर्थात् घिसकर अथवा काटकर ली जायँ ऐसी वस्तुएँ, जैसे कि सुवर्ण, रत्न आदि । धन्न–जव, गेहूँ, चावल आदि चौबीस प्रकारके धान्य । खित्त-खेत, वाडी, बागबगीचा आदि । वत्थू-मकान हाट, गोदाम आदि । रुप्प - चाँदी | सुवन्न - सोना । अतिक्रम - उल्लङ्घन । अ- और । कुविअ - परिमाणे- कुप्य णातिक्रमके विषयमें । For Private & Personal Use Only प्रमा www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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