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देव-गुरु-धर्म-तणे विषे निःशंकपणुन कीधु', तथा एकान्त निश्चय न कोधो, धर्म-सम्बन्धीयां फलतणे विषे निःसन्देह बुद्धि धरी नहीं, साधु-साध्वीनां मल-मलिन गात्र देखी दुगंछा नीपजावी, कुचारित्रीया देखो चारित्रीया ऊपर अभाव हुओ, मिथ्यात्वी-तणी पूजा-प्रभावना देखी मूढ़दृष्टिपणु कीधु।
तथा संघमाहे गुणवंत-तणी अनुपबृंहणा कोधी; अस्थिरीकरण, अवात्सल्य, अप्रोति, अभक्ति नीपजावी, अबहुमान कीधु। __ तथा देवद्रव्य, गुरुद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, साधारणद्रव्य, भक्षित, उपेक्षित, प्रज्ञापराधे विणास्यां, विणसतां उवेख्यां, छती शक्तिए सारसंभाल न कोथो; तथा सार्मिक साथे कलह-कर्म-बंध कीधो।
अधोती, अष्टपड मुखकोश-पाखे देव-पूजा कोधी; बिब-प्रत्ये वासकूपी, धूपधाणु, कलश-तणो ठबको लाग्यो, बिंब हाथ-थको पाड्य, ऊसास-नीसास लाग्यो ।
देहरे उपाश्रये मल-श्लेष्मादिक लोह्यं , देहरामांहे हास्य, खेल, केलि, कुतूहल, आहार-नीहार कोधां, पान, सोपारी, निवेदीयां खाधां।
ठवणायरिय हाथ-थकी पाड्या, पडिलेहवा विसार्या । जिन-भवने चोराशी आशातना, गुरु-गुरुणी प्रत्ये तेत्रीस आशातना कीधी, गुरु-वचन 'तह त्ति' करी पडिवज्युं नहीं।
दर्शनाचार-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांइि० ॥१॥
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