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ध्यानमें स्थित देखा। उन्होंने चिलातीपुत्रको तीन पद दिये-“उपशम, विवेक और संवर ।' और आकाशमार्गसे चले गये। उक्त तीन पदोंका अर्थ विचारते हुए चिलातीपुत्र वहीं खड़ा रहा और शुभ ध्यानमें मग्न हो गया। उसका शरीर लहूसे भरा हुआ था । अतः लहूकी गन्धसे चींटियाँ आ पहुँची और काटने लगीं, परन्तु वह ध्यानसे विचलित नहीं हुआ। ढाई दिनमें तो उसका शरीर छलनी जैसा हो गया। किन्तु उसने सारे दुःखोंको समभावसे सहन कर लिया और मृत्युके पश्चात् स्वर्गको गया ।
३६ युगबाहु मुनि :-पाटलिपुत्र नामके नगरमें विक्रमबाहु नामका राजा था। उसकी मदनरेखा नामकी रानी थी। प्रौढावस्थामें उसके पुत्र हुआ। उसका नाम युगबाहु रखा गया। उनको शारदादेवी तथा विद्याधरोंकी सहायतासे अनेक विद्याएँ प्राप्त हुई थी और अनङ्गसुन्दरी नामक अत्यन्त रूपवती रमणीके साथ उनका लग्न हुआ था। तत् पश्चात् ज्ञानपञ्चमीकी विधिपूर्वक आराधना करके दीक्षा ली और उग्र तपश्चर्या करके कर्मक्षय किया, तथा केवलज्ञान प्राप्त किया।
३७-३८ आर्य महागिरि और आर्य सुहस्तिसूरि:-ये दोनों श्रीस्थूलभद्रजीके दशपूर्वी शिष्य थे। इस समयमें जिनकल्पका विच्छेद था, तो भी आर्य महागिरि गच्छमें रहकर जिनकल्पकी तुलना करते थे और आर्य सुहस्ति सङ्घका भार वहन करते थे। आर्य सुहस्तिसूरि ने कालान्तरमें अवन्तिपति सम्प्रति राजाको प्रतिबोध दिया। उस राजाने जिनदेवोंके अनेक मन्दिर बनाकर अनार्यदेशमें भी साधुओंके विहार करनेकी सरलता करके जैनधर्मकी बहुत प्रभावना की। जैनशासनका प्रभाव इनके समयमें अत्यन्त विस्तारको प्राप्त हुआ था।
३९ आर्यरक्षितसूरि :-ये विद्वान् ब्राह्मण थे। जब ये अध्ययन करके वापस लौटे तब बहुत बड़ा उत्सव हुआ। पर जैनधर्मका पालन करनेवाली माता इस अध्ययनसे प्रसन्न नहीं हुई । उसने कहा-दृष्टिवादके अतिरिक्त अन्य हिंसा प्रतिपादक शास्त्र नरकमें ले जानेवाले हैं। माता
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