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३०८ परम-उत्कृष्ट । कन्द-वनस्पतिका स्याहाद-' स्यात् ' . पदको भूमिगत भाग । उद्भेद -
प्रधानतावाला वाद, अनेका
न्तवाद अथवा अपेक्षावाद । प्रकट करना। नव-नया ।
निःस्यन्दी-बरसानेवाला। अम्बुद-मेघ ।
शीतलः-श्रीशीतलनाथ । स्याद्वादामृत - निःस्यन्दी - पातु-रक्षा करें।
स्याद्वादरूपी अमृतको बरसाने-व-तुम्हारी। वाले।
जिन:-जिनेश्वर । अर्थ-सङ्कलना
प्राणियोंके परमानन्दरूपी कन्दको प्रकटित करनेके लिये नवीन मेघ-स्वरूप तथा स्याद्वादरूपी अमृतको बरसानेवाले श्रीशीतलनाथ जिनेश्वर तुम्हारी रक्षा करें ।। १२ ।।। मूल
भव-रोगाऽऽत्त-जन्तूनामगदङ्कार-दर्शनः ।
निःश्रेयस-श्री-रमणः, श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु बः॥१३॥ शब्दार्थभव - रोगाऽऽर्त - जन्तूनाम् - | निःश्रेयस-श्री-रमणः - निःश्रेयस
भव-रोगसे पीड़ित जन्तुओंके (मुक्ति) रूपी लक्ष्मीके पति । लिये।
निःश्रेयस-मुक्ति । श्री-लक्ष्मी। भवरूपी जो रोग वह भवरोग । |
रमण-पति। आर्त्त-पोडित ।
श्रेयांसः-श्रीश्रेयांसनाथ । अगदङ्कार - दर्शनः-वैद्यके दर्शन । समान जैसे ।
श्रेयसे-श्रेयके लिये, मुक्तिके लिये । अगदङ्कार-रोगरहित करनेवाले, | अस्तु-हों । वैद्य ।
वः-तुम्हारे ।
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