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________________ (६) संलावे. १७२ --- - बातचीत करते समय जिस तरह मान रखने में सचेत रहना चाहिये, वैसा नहीं हुआ हो तब । (७) उच्चासणे - गुरुके आसनसे अपना आसन ऊँचा रखा हो तब | (८) समासणे - गुरुके जितना ही अपना आसन ऊँचा रखना हो तब | (९) अन्तरभासाए - - गुरु किसी के साथ वार्तालाप करते हों और बीच में बोल गये हों तब । (१०) उवरिभासाए - - गुरुके ऊपर होकर कोई बात कही गयी हो तब | प्रश्न -- विनय - रहित कृत्य होना कब सम्भव है ? उत्तर - किसी भी समय । शिष्यको गुरुके साथ अनेक प्रकारके कार्य होते हैं, अतः प्रत्येक समय उसको गुरुके प्रति योग्य विनय करना चाहिये, परन्तु किसी कारणवश उसका ध्यान न रहे तो विनयरहित कृत्य होता है । प्रश्न - शिष्य जान-बूझकर गुरुका विनय नहीं करे तो ? उत्तर - तो वह महादोषका भागी होता है और उसकी सब साधना निष्फल हो जाती है । शास्त्रोंमें कहा है कि :- - जो साधु (शिष्य) गुरुका विनय यथार्थ रूपसे नहीं करता है, और मोक्षकी इच्छा करता है, वह जीवितकी इच्छा करते हुए अग्नि में प्रवेश करनेका कार्य करता है । इसलिये यहाँ भूल चूकका प्रसङ्ग समझना चाहिये | किसी समय भूल होनेके पश्चात् शिष्यको ध्यान आ जाता है कि मुझसे भूल हुई और किसी समय ऐसा ध्यान बिलकुल नहीं आता है, यद्यपि गुरुको इस बात का ध्यान आ जाता है । अतएव ऐसे समस्त अपराधों की क्षमा माँगी जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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