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करने चाहिये, उनमेंसे अन्तिम चैत्यवदन रात्रिमें सोनेसे पूर्व करना चाहिये, वह यहाँ किया जाता है। बादको सब क्रियाएँ सामायिक पारनेकी विधिके अनुसार हैं जिनको पहले विस्तारसे बतला चुके हैं।
[१५] रात्रिक प्रतिक्रमणकी विधिके हेतु १. प्रथम सामायिक लिया जाता है, उसका हेतु दैवसिकप्रतिक्रमणके हेतुके अनुसार समझना।
२. फिर कुस्वप्न-दुःस्वप्न के निमित्तसे काउस्सग्ग किया जाता है, उसमें रागादिमय स्वप्नको कुस्वप्न समझना और द्वेषादिमय स्वप्नको दुःस्वप्न समझना । स्वप्न में स्त्रीको अनुरागद्वारा देखी हो, तो वह दष्टि-विपर्यास कहलाता है। तदर्थ १२० श्वासोच्छ्वासका काउस्सग्ग करना चाहिये, जो कि 'लोगस्स' सूत्रका 'चंदेसु निम्मलयरा' तकका पाठ चार बार विधिवत् स्मरण करनेसे होता है। और स्वप्नमें अब्रह्मका सेवन हुआ हो, तो उसके निमित्त १०८ श्वासोच्छ्वासका काउस्सग्ग करना चाहिये, जो 'लोगस्स' सूत्रका 'सागरवर-गंभोरा' तकका पाठ चार बार विधिपूर्वक स्मरण करनेसे होता है। फिर 'लोगस्स' सूत्रका पाठ प्रकटरूपमें बोला जाता है, वह मङ्गलरूप समझना। कुस्वप्नदुःस्वप्नका यह अधिकार मुख्यतया स्त्री-सङ्गसे रहित मुनिराजको लक्ष्य करके कहा गया है और उसके लिये जो कायोत्सर्ग किया जाता है, वह पातकको शुद्धिके लिये प्रायश्चित्तरूप होनेसे आवश्यकसे अतिरिक्त हैं।
३. सर्व धर्मानुष्ठान देव-गुरुके वन्दन-पूर्वक करनेसे सफल होते
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