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कपूर, अगरका धूप, बास, और कुसुमाञ्जलि" लेकर । स्नात्र - चतुष्किकाया - स्नात्र बो
के मण्डप |
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श्री संघसमेतः - श्री सङ्घके साथ । श्रीसङ्घ–श्रावक-श्राविकाओं
का समुदाय |
शुचि - शुचि - वपुः - बाह्य अभ्यन्तर मलसे रहित ।
अर्थ-सङ्कलना
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और
पुष्प - वस्त्र
:- श्वेतवस्त्र, ङ्कृतःआभरणोंसे अलङ्कृत होकर ।
पुष्प - श्वेत |
पुष्पमालां कण्ठे कृत्वा - फूलोंके हारको गले में धारण करके । शान्ति- पानीयं शान्तिकलशका
जल ।
मस्तके
चन्दनाभरणाल
चन्दन और
दातव्यम् लगाना चाहिये । इति- इस प्रकार |
यह शान्तिपाठ, जिनबिम्बको प्रतिष्ठा, रथयात्रा और स्नात्र आदि महोत्सव के अन्त में ( बोलना, इसकी विधि इस प्रकार है कि :-) केसर-चन्दन, कपूर, अगरका धूप, वास और कुसुमाञ्जलि - अञ्जलिमें विविधरंगोंके पुष्प रखकर, बाँये हाथमें शान्ति - कलश ग्रहण करके ( तथा उसपर दाँया हाथ ढककर ) श्रीसङ्घके साथ स्नात्र मण्डपमें खड़ा रहे। वह बाह्य- अभ्यन्तर मलसे रहित होना चाहिये तथा श्वेतवस्त्र, चन्दन, और आभरणोंसे अलङ्कृत होना चाहिये । फूलों का हार गले में धारण करके शान्तिकी उद्घोषणा करे और उद्घोषणा के पश्चात् शान्ति - कलशका जल देवे, जिसको ( अपने तथा अन्यके ) मस्तक पर लगाना चाहिये ॥ १९ ॥
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मस्तकपर
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