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. ५५३ 'पुण्डरीक गणपति सिद्धि साधी, कोडी पण मुनि मनहरं । श्रीविमल गिरिवर-शृङ्ग सिद्धा, नमो आदि जिनेश्वरं ।। ४॥ निजसाध्य-साधक सुर-मुनिवर, कोडि'नन्त ए गिरिवरं । मुक्ति-रमणी वर्या रंगे, नमो आदि जिनेश्वरं ॥५॥ पाताल-नर-सुर-लोकमांही, विमल गिरिवरतो परं । नहि अधिक तीरथ तीर्थपति कहे, नमो आदि जिनेश्वरं ॥६॥ विमल गिरिवर-शिखर-मण्डण, दुःख-विहण्डण ध्याइये । निज शुद्ध-सत्ता-साधनाथ, परम ज्योति निपाइये ।। ७॥ जितमोह-कोह-विछोह निद्रा, परम-पद-स्थित जयकरं। ईगरिराज-सेवा-करण-तत्पर, पद्मविजय सुहितकरं ॥ ८॥
श्रीसिद्धाचलजीका चैत्यवन्दन श्रीशजय सिद्ध-क्षेत्र, दीठे दुर्गति वारे । भाव धरीने जे चढे, तेने भवपार उतारे ॥१॥ अनन्त सिद्धनो एह ठाम, सकल तीर्थनो राय । पूर्व नवाणुं ऋषभदेव, ज्यां ठवीआ प्रभु पाय ।। २॥ सूरजकुण्ड सोहामणो, कवड जक्ष अभिराम । नाभिराया-कुलमण्डणो, जिनवर करूं प्रणाम ॥३॥
(७) श्रीऋषभदेवका चैत्यवन्दन आदिदेव अलवेसरू, विनीतानो राय ।
नाभिराया-कुलमण्डणो, मरुदेवा माय ॥१॥ प्र-३६
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