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३५५ तमहं जिणचंदं, अजियं जिय-मोहं । धुय-सव्व-किलेसं. पयओ पणमामि ।। २८ ।। [२९]
नंदिययं ॥
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शब्दार्थअंबरंतर - विआरणिआहिं - सकल-कलासे युक्त, विकसित । आकाशके मध्यमें विचरण कर
कमल-दल-कमलपत्र । नेवाली।
__ लोअणिआ-नयनोंवाली। अंबर-आकाश। अंतर-मध्य- पीण-निरंतर - थणभर-विण
भाग । विआरणिआ-विच- मिय - गाय - लयाहिं-पुष्ट रण करनेवालो।
और अन्तर-रहित स्तनोंके ललिय-हंस-वहु- गामिणिआहिं भारसे अधिक झुकी हुई
-मनोहर हंसीको तरह सुन्दर गात्र लतावाली। गतिसे चलनेवाली।
पीण-पुष्ट । निरंतर-अन्तरललिय-मनोहर ।हंस-बहु-हंसी। रहित । थण-स्तन । भारगामिणिआ-चलनेवाली ।
भार। विणमिअ-अधिक पीण-सोणि-थण-सालिणिआहिं झुकी हुई। गाय-लया
पुष्ट नितम्ब और भरावदार गात्रलता। ___ स्तनोंसे शोभित । मणि-कंचण - पसिढिल-मेहलपोण-भरावदार, पुष्ट । सोणि
सोहिय - सोणि-तडाहिं - नितम्ब, कटिके नोचेका
रत्न और सुवर्णकी झूलती भाग । थण-स्तन । सालि
हुई मेखलाओंसे शोभायमान णिआ-शोभित।
नितम्ब प्रदेशवाली। सकल - कमल-दल- लोअणि- मणि-रत्ल । कंचण-सुवर्ण ।
आहिं - कलामय विकसित पसिढिल-प्रशिथिल । मेहलकमलपत्रके समान नयनोंवाली। मेखला, कटिका आभूषण ।
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