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________________ ३४५ किरणोंसे भी अधिक तेजवाले, इन्द्रोंके समूहसे भी अधिक रूपवान्, मेरु पर्वत से भी अधिक दृढ़तावाले तथा निरन्तर आत्म-बलमें अजित, शारीरिक बलमें भी अजित और तप-संयममें भी अजित, ऐसे श्री अजितजिनकी मैं स्तुति करता हूँ ।। १५-१६ ॥ मूल ( दूसरे सन्दानितकद्वारा श्रीशान्तिनाथकी स्तुति ) सोम - गुणेहिं पावइ न तं नव - सरय-ससी, अ - गुणेहिं पावड़ न तं नव - सरय - रवी । रूव - गुणेहिं पावइ न तं तिअस - गण - वई, सार- गुणेहिं पावइ न तं धरणि - घर - वई ॥ १७ ॥ तित्थवर - पवत्तयं तम-रय - रहियं, धीर - जण - धुयच्चियं - चुय - कलि-कलुसं । संति - सुह - पवत्तयं तिगरण - पयओ, संतिमहं महामुणि सरणमुवणमे ||१८|| शब्दार्थ सोम - गुणेहिं - आह्लादकता आदि । तं - जिनकी । गुणों पावइ न प्राप्त नहीं हो सकता, बराबरी नहीं कर सकता । Jain Education International - खिज्जिययं ॥ For Private & Personal Use Only — ललिययं ॥ नव-सरय-ससी-नवीन ऋतुका पूर्णचन्द्र । सरय - शरद् ऋतु । ससी - चन्द्र । शरद् www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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