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________________ चूला-चूलिका । शास्त्रका परि- | आमूल-मूलपर्यन्त । आलोल शिष्ट भाग । वेल-ज्वार। कुछ डोलता हुआ । धूलीगुरुगम-मणी-संकुलं - उत्तम रज अथवा पराग। बहुलआलापकरूपी रत्नोंसे भरपूर । बहुत । परिमल - सुगन्ध । गुरु-श्रेष्ठ । गम-समान | आलीढ - आसक्त, मग्न पाठवाले आलापक । संकुल अथवा चिपके हुए। लोलव्याप्त । चपल । अलिमाला-भ्रमरदूर-पारं- जिसका सम्पूर्ण पार समूह । आगार-भूमीपाना अतिकठिन है। रहनेकी जगह। सारं-उत्तम, श्रेष्ठ । छाया-संभार-सारे !- कान्तिवीरागम - जलनिधि - श्रीवीर- पुञ्जसे उत्तम । अत्यन्त तेज प्रभुके आगमरूपी समुद्रकी। स्विताके कारण रमणीय । आगम-आप्त-वचनोंका संग्रह । संभार-समूह, पुञ्ज अथवा सादरं-आदरपूर्वक। जत्था । साधु-अच्छी तरह । वरकमल-करे!- सुन्दर कमलसेवे-मैं उपासना करता हूँ, मैं सेवा युक्त हाथवाली। तार-हाराभिरामे !-दैदीप्यमान ___करता हूँ। हारसे सुशोभित । आमूलालोल - धूली- बहुल तार-स्वच्छ । दैदीप्यमान, परिमलाऽऽलोढ- लोलालि चमकीला-दमकता। माला-झंकाराराव-सारा- वाणी-संदोह - देहे ! - वाणीके मलदल - कमलागार - समूहरूप देहवाली। भूमी-निवासे ! -मूलपर्यन्त | संदोह-समूह या जत्था । कुछ डोलनेसे गिरे हुए मक- भव - विरह - वरं - मोक्षका । रन्दकी अत्यन्त सुगन्धमें मग्न वरदान । बने हुए चपल भ्रमर-वृन्दके देहि-दो। झङ्कार शब्दसे युक्त उत्तम | मे-मुझे । निर्मल पंखुड़ीवाले कमल-गृहकी देवि !-हे श्रुतदेवि !, हे देवि ! भूमिमें निवास करनेवाले। सारं-श्रेष्ठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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