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बाह्यतप-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि ॥ १४ ॥
अभ्यंतर तपपायच्छित्त विणओ० ॥
मन-शुद्ध गुरु-कन्हे आलोअण लोधी नहीं; गुरु-दत्त प्रायश्चित्ततप लेखा शुद्धे पहुँचाड्यो नहीं, देव, गुरु, संघ, सा हम्मी प्रत्ये विनय साचव्यो नहीं; बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी-प्रमुखनुं वेयावच्च न कोळू, वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा-लक्षण पंचविध स्वाध्याय न कीधो, धर्मध्यान, शुक्लध्यान न ध्यायां, आर्तध्यान, रौद्रध्यान ध्यायां, कर्मक्षय-निमित्ते लोगस्स दश-वीशनो काउस्सग्ग न कोधो।
अभ्यंतर तप-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमाहि० ॥ १५ ॥ वीर्याचारना त्रण अतिचार
अणिग्रहिअ-बल-वीरिओ० ॥ . पढवे, गुणवे, विनय, वेयावच्च, देव-पूजा, सामायिक, पोसह, दान, शील, तप, भावनादिक धर्म-कृत्यने विषे मन, वचन, कायातणुं छतु वीर्य गोपव्यु।
रूडां पंचांग खमासमण न दीधां, वांदणा-आवर्तविधि साचव्या नहीं, अन्यचित्त निरादर पणे बेठा, उतावळ देव-वंदन पडिक्कमणुं कोर्छ ।
वीर्याचार-विषइओ अनेरो जे कोई अतिचार पक्ष-दिवसमांहि ॥१६॥
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