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________________ ५२२ सामायिक पारूं ?' इस समय गुरु कहते हैं कि-'पुणो वि कायव्वो' फिर भी करने योग्य है।' उस समय साधक 'यथाशक्ति' शब्दद्वारा अपनी मर्यादा सूचित करता है कि मेरी शक्ति अभी यहीं पूर्णाहुति करने जितनी है। इसके बाद फिर खमासमण प्रणिपात कर, गुरुके समक्ष प्रकट किया जाता है कि इच्छा० संदिसह भगवन् ! सामायिक पार्यु' अर्थात् हे भगवन् ! इच्छापूर्वक आज्ञा दीजिये-मैंने सामायिक पूर्ण किया है ।' उस समय गुरु कहते हैं कि 'आयारो न मोत्तव्वो' -आचार नहीं छोड़ना,' अर्थात् सामायिक करना यह तुम्हारा आचार है, अतः उसमें प्रमाद नहीं करना । तात्पर्य यह कि यह साधना एकसे अधिक बार करने योग्य है । प्रतिदिन नियमित करने योग्य है और उसमें एक भी दिन रीता न जाय इसकी ओर लक्ष्य रखना। इतनी विधिके बाद दाहिना हाथ चरवलेपर रख एक 'नमस्कार' का पाठ अन्त्य मङ्गलके रूपमें बोला जाता है। और 'सामाइय-पारण -गाहा' (सामाइय-वय-जुत्तो) के पाठद्वारा सामायिककी महत्ताका पुनः स्मरण कर, उसमें जो कोई दोष अथवा स्खलना हुई हो उसके लिये हार्दिक दुःख व्यक्त किया जाता है । फिर दाहिना हाथ स्थापनाके समक्ष उलटा रखकर नमस्कारका पाठ एक बार बोला जाता है। इससे 'स्थापनाचार्य' की 'उत्थापना' हुई मानी जात है। यहाँ 'सामायिक'की विधि पूर्ण होती है। जो एकसे अधिक सामायिक करने की इच्छा रखते हों वे उसकी पूर्णाहुतिकी विधि पूरीन कर फिरसे 'सामायिक' की प्रवेशविधि करते हैं। इस तरह एक साथ तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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