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सामायिककी क्रियाएँ हो सकता हैं और तीसरी बार पारनेकी विधि करना चाहिये ।
जो व्यक्ति 'सामायिक' का अनुसरण करता है, वह सुख, शान्ति और सामर्थ्यका लाभ प्राप्त कर सकता है ।
[ १३ ]
चैत्यवन्दन की विधि हेतु
कोई भी धर्मानुष्ठान गुरु अथवा देवको वन्दन करके उनकी आज्ञा पूर्वक करना चाहिये, इस हेतुसे प्रथम तीन खमासमण प्रणि० को क्रिया की जाती है और चैत्यवन्दन करनेका आदेश मांगा जाता है । और आदेश मिलने की स्वीकृति के रूप में चैत्यवन्दन प्रारम्भ किया जाता है। धर्मानुष्ठानका आरम्भ मङ्गलाचरण से होना चाहिये । अतः प्रथम उसमें तीर्थङ्कर भगवन्तोंकी स्तुति-वर्णनरूप ऐच्छिक चैत्यवन्दन बोला जाता है | इस ऐच्छिक चैत्यवन्दनद्वारा अनुष्ठाता अनेक भावोंसे चैत्यवन्दन कर सकता है । ऐसे किसी भी चैत्यवन्दनको पूर्णाहुति 'जं किंचि नाम तित्थं' इस सूत्रसे की जाती है । क्यों कि इससे तानों लोक में स्थित सकल तीर्थोंकी वन्दना होती है । अर्थात् समस्त विश्व में स्थित चैत्य और तीर्थ- संस्थाओंके प्रति पूर्ण श्रद्धा व्यक्त की जाती है । इसके बाद 'सक्कत्थय - सुत्त' अर्थात् ( 'नमो त्थु णं' सूत्र ) का पाठ योगमुद्रासे बोला जाता है, उसका कारण अर्हदेवों के उत्कृष्ट गुणोंकी आराधना है । अन्य शब्दों में कहा जाय तो इसमें
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