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________________ ५२४ 'भावजिन' के प्रति भक्ति-भावनाका अर्घ्य है। इस सूत्रकी अन्तिम गाथाद्वारा तीर्थङ्कर पदको भूत, वर्तमान और भविष्यकालीन अवस्थाओंको भी वन्दन किया जाता है, जिससे आराध्यके रूप में इस पदकी महत्ता हृदयमें स्थिर होती है। 'योगमुद्रा' का हेतु जिनेश्वरोंके इन गुणोंमें तल्लीनताका अनुभव करना है। तत् पश्चात् 'सव्वचेइय-वंदण' सुत्तं ( 'जावंति चेइयाई' सूत्र )का पाठ सर्व चैत्योंकी पूज्यताको मनमें अङ्कित करता है तथा खमासमण प्रणिपातकी क्रिया और 'सव्वसाहुवंदण' सुत्तं ( 'जावंत के वि साहू' सूत्र ) का पाठ सम्पूर्ण विश्वमें चारित्रको सुगन्ध फैलाये हुए साधु-मुनिराजोंके प्रति पूज्यभावकी अभिव्यक्ति करता है। चैत्यवन्दन के अधिकारमें यह साधुवन्दन क्यों ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि भिन्न भिन्न भूमिकापर स्थित रहकर आत्मविकासकी साधना करनेवाले ये सन्त पुरुष चैत्यवन्दनरूपी 'श्रद्धायोग' या 'भक्तियोग'की भावनाको दृढ़ करने में निमित्तभूत हैं। इतनी विधिके पश्चात् 'नमोऽर्हत्' सूत्रके मङ्गलाचरणपूर्वक स्तवन बोला जाता है। अनुष्ठाताको यहाँ हृदयके तार झनझनाने चाहिये, क्यों कि 'तोतेके राम' की तरह केवल मुखसे उच्चारण करनेका कोई अर्थ नहीं। भगवद्भजनकी इच्छा, प्रवृत्ति और तल्लीनता ये तीनों ही मङ्गलकारी हैं। चैत्यवन्दनका यह हृदय है, चैत्यवन्दनका यह प्राण है। इस समय भावनाके पूरमें उभार आना हो चाहिये । काव्यकलाके लिये यहाँ स्थान है, सङ्गातकलाके लिये यहाँ अवकाश है, अभिनयकलाको अवश्य ही उपयुक्त मार्ग मिलता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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