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________________ ४५१ अर्थ अशुद्ध किया । अथवा सूत्र और अर्थ दोनों असत्य कहे । पढ़कर भूला । असज्झाय के समय में थविरावली, प्रतिक्रमण, उपदेशमाला आदि सिद्धांत पढ़ा। अपवित्र स्थान में पढ़ा या बिना साफ की हुई घृणित ( खराब ) भूमि पर रखा । ज्ञान के उपकरण तख्ती, पोथी, ठवणी, कवली, माला, पुस्तक रखने की रील, काग़ज़, कलम, दवात, आदि के पैर लगा, थूक लगा, अथवा थूक से अक्षर मिटाया, ज्ञान के उपकरण को मस्तक के नीचे रखा, अथवा पास में लिए हुए आहार, निहार किया, ज्ञान- द्रव्य भक्षण करने वाले की उपेक्षा की, ज्ञान- द्रव्य की सार-संभाल न की, उल्टा नुकसान किया, ज्ञानवान के ऊपर द्वेष किया, ईर्ष्या की, तथा अवज्ञा, आसातना की, किसी के पढ़नेगुणने में विघ्न डाला, अपने जानपने का मान किया । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान, इन पांचों ज्ञानों में श्रद्धा न की । गूंगे, तातले की हँसी की । ज्ञान में कुतर्क किया, ज्ञान के विपरीत प्ररूपणा की । इत्यादि ज्ञानाचार संबंधी जो कोई अतिचार पक्षदिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं । दर्शनाचार के आठ अतिचार " निस्संकिय निक्कखिय, निव्विडिगिच्छा अमूढदिट्ठी अ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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