________________
५०८ फिर मुख-शुद्धि करके तिविहारका पच्चक्खाण करना और नमस्कार गिनकर उठना तथा काजा लेकर परठवना । बादमें पोषध, शालामें आकर स्थापनाजीके सम्मुख इरियावही पडिक्कमण करके चैत्यवन्दन करना ! उसमें 'जगचिंतामणि' सुत्त बोलना और 'पणिहाणसुत्त' ( 'जय वीयराय' )-तककी सब विधि करनी।
(१४) इसके बाद स्वाध्याय और ध्यानमें प्रवृत्त होना।
(१५) तीसरे प्रहरके बाद मुनिराजने स्थापनाचार्यका पडिलेहण किया हो तो उनके समक्ष ( दूसरी बारका ) पडिलेहण करना । वह इस प्रकार
__(१) प्रथम खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० बहुपडिपुन्ना पोरिसी ?' ऐसे कहना। तब गुरु कहें-तह त्ति' तब 'इच्छं' कहकर खमा० प्रणि० करके इरियावही पडिक्कमण करना । (२) फिर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा० गमणागमणे आलोऊँ ?' ऐसा कहना। गुरु कहें'आलोएह' तब 'इच्छं' कहकर 'गमणागमणे' आलोवना । (३) फिर खमा० प्राणि० करके इच्छा० पडिलेहण करूँ ?' गुरु कहें'करेह' तब 'इच्छं' कहकर खमा० प्रणि० करके कहना कि 'इच्छा. पोसहसाला प्रमाणू ?' गुरु कहें-'पमज्जेह' तब 'इच्छं' कहकर उपवासवालेको मुहपत्ती, कटासणा और चरवला ये तीनों और आयंबिल-एकाशनवालेको इन तीनोंके अतिरिक्त कंदोरा और धोती इस प्रकार पाँचकी पडिलेहणा करनी। ( ४ ) फिर खमा० प्रणि० करके इरियावही' पडिक्कमण कर (उपवासवालेको इरियावही पडिक्कमण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org