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________________ ५३ जो सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं तथा शिव, स्थिर, व्याधि और वेदनासे रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध और अपुनरावृत्ति अर्थात् जहाँ जानेके बाद संसारमें वापस आना नहीं रहता, ऐसे सिद्धगति नामक स्थानको प्राप्त किये हुए हैं, उन जिनोंको-भय जीतनेवालोंको नमस्कार हो ॥९॥ जो भूतकालमें सिद्ध होगये हैं, जो भविष्यकालमें सिद्ध होनेवाले हैं तथा जो वर्तमानकालमें अरिहन्तरूपमें विद्यमान हैं, उन सबको मन, वचन और कायसे मैं वन्दन करता हूँ॥१०॥ सूत्र-परिचय जब जिनदेव अर्थात् तीर्थङ्कर भगवान् देवलोकसे च्युत होकर माताके गर्भमें आते हैं, तब शक्र ( इन्द्र ) महाराज इस सूत्रके द्वारा उनका स्तवन करते हैं, इसीसे यह सूत्र — शक्रस्तव' कहाता है। इस सूत्रका दूसरा नाम 'प्रणिपात-दण्डक' है। जिनदेव (अरिहन्त)का स्वरूप प्रश्न-जिन कितने प्रकारके हैं ? उत्तर-चार प्रकारके :-नामजिन, स्थापनाजिन, द्रव्यजिन और भावजिन । प्रश्न-नामजिन किसे कहते हैं ? उत्तर-ऋषभ, अजित आदि जिनके नाम हों, उनको नामजिन कहते हैं । प्रश्न-स्थापनाजिन किसे कहते हैं ? उत्तर—सुवर्ण, रत्न, पाषाण आदिकी जिनप्रतिमाओंको स्थापनाजिन कहते हैं। प्रश्न-द्रव्यजिन किसे कहते हैं ? उत्तर-भविष्यमें होनेवाले श्रेणिक आदिके जीवोंको द्रव्यजिन कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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