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________________ १८० विकच-विकसित, खिला हुआ। कषाय - तापादित - जन्तुअरविन्द-कमल । राजि- निति – कपायरूपी तापसे पीड़ित प्राणियोंकी शान्तिको । श्रेणि। करोति-करता है। ज्यायः-क्रम-कमलावलि-उत्तम पः-जो। चरण-कमलकी श्रेणिको। जैनमुखाम्बुदोद्गतः - जिनेश्वरज्यायस्-उत्तम । क्रम-चरण । __ के मुखरूपी मेघसे प्रकटित । आवलि-हार, श्रेणि। जैनमुख-जिनेश्वरका मुख । अम्बुद-मेघ । उद्गत-प्रकटित । दधत्या-धारण करनेवाली। सः-वह। सदृशैः-समानके साथ । शुक्रमासोद्भव - वृष्टि - सइति सङ्गतं-इस प्रकार समागम निभः-ज्येष्ठमासमें हुई वृष्टिके होना वह । जैसा। प्रशस्य-प्रशस्त, प्रशंसनीय । शुक्रमास-ज्येष्ठ मास । उद्भव कथितं-कहा। -उत्पन्न । वृष्टि-वर्षा । सन्निभ-सदृश, जैसा। सन्तु-हों। | दधातु-करो। शिवाय-शिवके लिये, मोक्षके तुष्टिं-अनुग्रह। लिये। मयि-मुझ पर। ते-वे। विस्तरः-विस्तार, समह । जिनेन्द्राः-जिनेन्द्र । गिराम्-वाणीका। अर्थ-सङ्कलना-- हम अब आपकी आज्ञा चाहते हैं। पूज्य क्षमा-श्रमणोंको नमस्कार हो । अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओंको नमस्कार हो। जो कर्म-वैरीके साथ जीतनेकी स्पर्धा करते हुए जय प्राप्त करके Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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