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शब्दार्थजइ-यदि ।
भुवणे-जगत् में। इच्छह-तुम चाहते हो।
तो-तो। परम-पयं-परम-पदको।
तेलुक्कुद्धरणे-तीनों लोकका उद्धार
करनेवाले। अहवा-अथवा ।
जिण-नयणे-जिन-वचनके प्रति । कित्ति-कीर्तिको।
आयरं-आदर। सुवित्थडं-अत्यन्त विशाल ।
| कुणह-करो। अर्थ-सङ्कलना__ यदि परम पदको चाहते हो अथवा इस जगत्में अत्यन्त विशाल कीर्तिको प्राप्त करना चाहते हो तो तीनों लोकका उद्धार करनेवाले जिनवचन के प्रति आदर करो ।। ४१ ।। सूत्र-परिचय
स्वसमय और परसमयके जानकार, मन्त्र और विद्याका परिपूर्ण रहस्य पहचाननेवाले, अध्यात्म रसका उत्कृष्ट पान करनेवाले और काव्यकलामें अत्यन्त कुशल ऐसे त्यागी-विरागी महर्षि नन्दिषेण एक समय श्रीशत्रुञ्जय गिरिराजकी यात्राके लिये पधारे थे। और वहाँके गगनचुम्बी भव्य जिनप्रासादोंमें स्थित जिनप्रतिमाओंके दर्शन कर कृतकृत्य हुए । तदनन्तर वे एक ऐसे रमणीय स्थानमें आये जहाँ द्वितीय तीर्थङ्कर श्रीअजितनाथ और सोलहवें तीर्थङ्कर श्रीशान्तिनाथके मनोहर चैत्य विराजित थे। वहाँ इन दोनों तीर्थङ्करोंकी साथ स्तुति करनेसे अजित-शान्ति-स्तवकी रचना हुई।
___ इस स्तवका गुम्फन संवादी है, वह अधोदर्शित तालिकासे समझ सकेंगे :गाथा १ से ३
मङ्गलादि। , ४ से ६ विशेषक श्रीअजित--शान्ति--संयुक्त स्तुति ।
मुक्तक श्रीअजितनाथकी स्तुति ।
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७ वीं
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