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________________ मूल उत्थे अणुव्वयम्मी, निच्चं परदार- गमण - विरईओ । आयरियमप्पसत्थे, इत्थ पमाय - पसंगेणं ॥ १५ ॥ शब्दार्थ चउत्थे अणुव्वयम्मी - चौथे अणुव्रतके विषय में | निच्चं - नित्य, निरन्तर । परदार-गमण - विरईओ - पर १३१ मूल अर्थ-सङ्कलना ra चौथे अणुव्रत विषयमें ( लगे हुए अतिचारोंका प्रतिक्रमण किया जाता है । ) यहाँ प्रमाद के प्रसङ्गसे अथवा क्रोधादि अप्रशस्तभावका उदय होनेसे निरन्तरकी परदारगमन - विरतिमें अतिचार लगे, ऐसा जो कोईआचरण किया हो, उससे मैं निवृत्त होता हूँ ॥ १५ ॥ ――――― दार-गमन - विरतिमें अतिचार लगे ऐसा । आयरियमप्पसत्थे इत्थ पमायपसंगेणं पूर्ववत् ० अपरिग्गहिआ - इत्तर - अणंग - वीवाह - तिव्व - अणुरागे । चउत्थवयस्स इआरे, पडिक मे देसिअं सव्वं ॥१६॥ शब्दार्थ अपरिग्गहिआ - इत्तर - अनंग - वीवाह - तिव्व - अणुरागेअपरिगृहीता - गमन, इत्वरगृहीता - गमन, अनङ्ग-क्रीडा, परविवाह - करण और तीव्र - अनुरागके कारण । Jain Education International अपरिगृहीता-गमन - जो स्त्री परिगृहोता अर्थात् विवाहित न हो वह अपरिगृहीता, कन्या और विधवा स्त्रियाँ अपरिगृहीता कहलाती हैं, उनके साथ गमन करना-सङ्ग For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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