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________________ गुरु-वन्दन करके सामायिकमें प्रवेश करनेको आज्ञा माँगी जाती है, उसमें प्रथम 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक संदिसाहुँ' इन शब्दोंद्वारा सामायिक करनेकी इच्छा प्रकट कर उसके लिये गुरुका आदेश लेनेकी भावना प्रदर्शित की जाती है, और जब गुरु 'संदिसह' शब्दसे तत्सम्बन्धी आज्ञा दें, तब उसको शिरोधार्य करनेके लिये 'इच्छ' बोलकर पुनः खमासमण प्रणिपातकी क्रियाद्वारा वन्दन कर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक ठाउं?' इन शब्दोंसे 'सामायिक'में स्थिर होनेका आदेश माँगा जाता है। गुरुकी ओरसे 'ठाएह' शब्दद्वारा आदेश मिल जानेपर 'इच्छ' कहकर खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार-मन्त्रके पाठको एक बार गणनापूर्वक - 'इच्छकारी भगवन् ! पसाय करो सामायिक-दंडक उच्चरावोजी' ऐसी विनति की जाती है। इस विनतिसे गुरु 'सामाइय-सुत्तं' अर्थात् 'करेमि भंते' सूत्रका पाठ बोलते हैं। गुरु यदि सूत्र बोलें तो उस समय साधकको दोनों हाथ जोड़कर कुछ मस्तक झुकाकर शान्तिसे श्रवण करना चाहिये और मध्यम स्वरमें बोलना चाहिये, यानि गुरु प्रतिज्ञा लिवाते हैं और साधक प्रतिज्ञा लेता है। 'प्राण जाय पर प्रतिज्ञा न जाय' यह भावना साधकको दृढ़ रीतिसे हृदय में धारण करनो चाहिये, क्योंकि साधनाकी सफलताका सर्व आधार उसके निर्वाह अथवा पालन पर निर्भर है। प्रत्येक धार्मिक क्रिया अथवा आध्यात्मिक अनुष्ठान प्रतिज्ञापूर्वक किया जाता है, उसका कारण यह है कि साधकको उसके साध्यका बराबर ध्यान रहे और उससे सम्बन्धित उसका पुरुषार्थ अस्खलित गतिसे चालू रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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